झारखंड में अब तक नहीं बनी भाषा परिषद, 25 साल बाद भी अधूरा सपना

झारखंड में अब तक नहीं बनी भाषा परिषद, 25 साल बाद भी अधूरा सपना

By : स्वराज पोस्ट | Edited By: Urvashi
Updated at : Nov 12, 2025, 3:59:00 PM

राज्य गठन के 25 वर्ष पूरे होने के बाद भी झारखंड में भाषा परिषद का गठन नहीं हो सका है। देश के कई राज्यों में जहां भाषा परिषदें स्थानीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए सक्रिय रूप से काम कर रही हैं, वहीं झारखंड में यह पहल अब तक फाइलों तक सीमित है। भाषाई विविधता से समृद्ध इस राज्य के लिए यह स्थिति चिंताजनक मानी जा रही है।

स्वतंत्र संगठनों के सहारे भाषाई प्रयास

राज्य में भले ही "झारखंड भाषा परिषद" जैसी कोई एकीकृत संस्था न हो, लेकिन कुछ स्वतंत्र संगठन भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने का कार्य कर रहे हैं। इनमें झारखंड साहित्य अकादमी और नागपुरी भाषा परिषद प्रमुख हैं। झारखंड साहित्य अकादमी ने हाल के वर्षों में स्थानीय भाषाविदों और लेखकों को मंच दिया है, जबकि नागपुरी भाषा परिषद क्षेत्रीय स्तर पर नागपुरी भाषा और संस्कृति के संरक्षण में सक्रिय है।

भाषा परिषद की भूमिका क्या होती है?

किसी भी राज्य की भाषा परिषद का मुख्य उद्देश्य उसकी भाषाई विरासत का संरक्षण, भाषा-साहित्य का प्रचार, और नई पीढ़ी को अपनी मातृभाषा से जोड़ना होता है। ये परिषदें साहित्यकारों को सम्मानित करती हैं, पुस्तकें प्रकाशित करती हैं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भाषाई एकता को सुदृढ़ बनाती हैं।

भारत के कई राज्यों में ये परिषदें दशकों से सक्रिय हैं — जैसे पश्चिम बंगाल की भारतीय भाषा परिषद (1975), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद (1950) और दिल्ली की भाषा भारती परिषद। इन संस्थाओं ने स्थानीय भाषाओं के समृद्ध साहित्य को नई पहचान दी है।

झारखंड की भाषाई विरासत

2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में 170 से अधिक मातृभाषाएं बोली जाती हैं। हिंदी राज्य की आधिकारिक भाषा है, जबकि उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। इसके अलावा संथाली, मुंडारी, हो, खड़िया, कुड़ूख, नागपुरी, खोरठा, कुरमाली, पंचपरगनिया, मगही, मैथिली, अंगिका और भोजपुरी जैसी अनेक भाषाएं यहां के जनजीवन का हिस्सा हैं।

इतनी भाषाई विविधता के बावजूद, इनके संरक्षण और विकास के लिए कोई संस्थागत ढांचा न होना एक बड़ी कमी मानी जा रही है।

विशेषज्ञों की राय: “भाषा परिषद झारखंड की ज़रूरत”

रांची विश्वविद्यालय के नागपुरी विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश नंद तिवारी का कहना है कि “झारखंड में नौ प्रमुख भाषाओं के साथ अनेक उपभाषाएं बोली जाती हैं। ऐसे में भाषा परिषद का अभाव बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।” उनके अनुसार परिषद का गठन राज्य की भाषाओं के संरक्षण और विकास की दिशा में ठोस कदम होगा।

वहीं पंचपरगनिया विभाग के प्रमुख डॉ. तर्केश्वर सिंह मुंडा का मानना है कि भाषा परिषद को सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल किया जाना चाहिए। इससे स्थानीय भाषाओं के लिए नीतिगत सहयोग, प्रकाशन और शोध कार्यों को नई गति मिलेगी।

मुंडारी विभाग के अध्यक्ष डॉ. वीरेंद्र कुमार सोय कहते हैं — “भाषा परिषद का गठन अब विलंबित नहीं होना चाहिए। हर भाषा अपने भीतर संस्कृति, परंपरा और अस्मिता का इतिहास समेटे हुए है। 25 वर्षों के बाद भी परिषद का न बनना भाषाओं के प्रति प्रशासनिक उदासीनता को दिखाता है।”

क्यों जरूरी है भाषा परिषद?

भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति की आत्मा होती है। झारखंड की लोकभाषाएं गीतों, परंपराओं और लोककथाओं में जीवित हैं। परिषद का गठन इन भाषाओं के दस्तावेजीकरण, शोध, और शैक्षणिक एकीकरण में अहम भूमिका निभा सकता है।

अब सरकार से उम्मीद

भले ही सरकार समय-समय पर इस दिशा में गंभीरता जताती रही हो, लेकिन अभी तक कोई ठोस नीति लागू नहीं हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है कि झारखंड अपनी भाषाई पहचान को सशक्त करने के लिए ठोस कदम उठाए।

राज्य की जनता अब यह सवाल पूछ रही है —

“जब राज्य अपना है, सरकार अपनी है, और भाषाएं भी अपनी हैं — तो फिर भाषा परिषद के गठन में देरी क्यों?”

भाषा परिषद का गठन न केवल झारखंड की सांस्कृतिक अस्मिता को बल देगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भाषाई विरासत को संरक्षित करने की दिशा में भी एक ऐतिहासिक कदम साबित होगा।